Lekhika Ranchi

Add To collaction

रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद

...

सोफी ने पृथ्वी की ओर ताकते हुए कहा-राजपक्ष लेनेवालों के लिए यह सिध्द करना कठिन है कि वे स्वार्थ से मुक्त हैं।
राजा-मिस सेवक, मैं आपको सच्चे हृदय से विश्वास दिलाता हूँ कि मैंने अधिकारियों के हाथों सम्मान और प्रतिष्ठा पाने के लिए उनका पक्ष नहीं ग्रहण किया, और पद का लोभ तो मुझे कभी रहा ही नहीं। मैं स्वयं नहीं कह सकता कि वह कौन-सी बात थी, जिसने मुझे सरकार की ओर खींचा। सम्भव है, अनिष्ट का भय हो, या केवल ठकुरसुहाती; पर मेरा कोई स्वार्थ नहीं था। सम्भव है, मैं उस समाज की आलोचना,उसके कुटिल कटाक्ष और उसके व्यंग्य से डरा होऊँ। मैं स्वयं इसका निश्चय नहीं कर सकता। मेरी धारणा थी कि सरकार का कृपा-पात्र बनकर प्रजा का जितना हित कर सकता हूँ, उतना उसका द्वेषी बनकर नहीं कर सकता। पर आज मुझे मालूम हुआ कि वहाँ भलाई होने की जितनी आशा है, उससे कहीं अधिक बुराई होने का भय है। यश और कीर्ति का मार्ग वही है, जो सूरदास ने ग्रहण किया। सूरदास, आशीर्वाद दो कि ईश्वर मुझे सत्पथ पर चलने की शक्ति प्रदान करें।
आकाश पर बादल मंडरा रहे थे। सूरदास निद्रा में मग्न था। इतनी बातों से उसे थकावट आ गई थी। सुभागी एक टाट का टुकड़ा लिए आई और सूरदास के पैताने बिछाकर लेट रही, शफाखाने के कर्मचारी चले गए। चारों ओर सन्नाटा छा गया।

सोफी गाड़ी का इंतजार कर रही थी-दस बजते होंगे। रानीजी शायद गाड़ी भेजना भूल गईं। उन्होंने शाम ही को गाड़ी भेजने का वादा किया था। कैसे जाऊँ? क्या हरज है, यहीं बैठी रहूँ। वहाँ रोने के सिवा और क्या करूँगी। आह! मैंने विनय का सर्वनाश कर दिया। मेरे ही कारण वह दो बार कर्तव्य-मार्ग से विचलित हुए, मेरे ही कारण उनकी जान पर बनी? अब वह मोहिनी मूर्ति देखने को तरस जाऊँगी। जानती हूँ कि हमारा फिर संयोग होगा, लेकिन नहीं जानती, कब! उसे वे दिन याद आए, जब भीलों के गाँव में इसी समय वह द्वार पर बैठी उनकी राह जोहा करती थी और वह कम्बल ओढ़े, नंगे सिर, नंगे पाँव हाथ में एक लकड़ी लिए आते थे और मुस्कराकर पूछते थे, मुझे देर तो नहीं हो गई?वह दिन याद आया, जब राजपूताना जाते समय विनय ने उनकी ओर आतुर, किंतु निराश नेत्रों से देखा था। आह! वह दिन याद आया,जब उसकी ओर ताकने के लिए रानीजी ने उन्हें तीव्र नेत्रों से देखा था और वह सिर झुकाए बाहर चले गए थे। सोफी शोक से विह्नल हो गई। जैसे हवा के झोंके धरती पर बैठी हुई धूल को उठा देते हैं, उसी प्रकार इस नीरव निशा ने उसकी स्मृतियों को जागृत कर दिया; सारा हृदय-क्षेत्र स्मृतिमय हो गया। वह बेचैन हो गई, कुर्सी से उठकर टहलने लगी। जी न जाने क्या चाहता था-कहीं उड़ जाऊँ, मर जाऊँ, कहाँ तक मन को समझाऊँ, कहाँ तक सब्र करूँ! अब न समझाऊँगी, रोऊँगी, तड़पूँगी, खूब जी भरकर! वह, जो मुझ पर प्राण देता था, संसार से उठ जाए, और मैं अपने को समझाऊँ कि अब रोने से क्या होगा? मैं रोऊँगी, इतना रोऊँगी कि आँखें फूट जाएँगी, हृदय-रक्त आँखों के रास्ते निकलने लगेगा, कंठ बैठ जाएगा। आँखों को अब करना ही क्या है! वे क्या देखकर कृतार्थ होंगी! हृदय-रक्त अब प्रवाहित होकर क्या करेगा!

इतने में किसी की आहट सुनाई दी। मिठुआ और भैरों बरामदे में आए। मिठुआ ने सोफी को सलाम किया और सूरदास की चारपाई के पास जाकर खड़ा हो गया। सूरदास ने चौंककर पूछा-कौन है, भैरों?
मिठुआ-दादा, मैं हूँ।
सूरदास-बहुत अच्छे आए बेटा, तुमसे भेंट हो गई। इतनी देर क्यों हुई?
मिठुआ-क्या करूँ दादा, बड़े बाबू से साँझ से छुट्टी माँग रहा था, मगर एक-न-एक काम लगा देते थे। डाउन नम्बर थ्री को निकाला, अप नम्बर वन को निकाला, फिर पारसल गाड़ी आई, उस पर माल लदवाया, डाउन नम्बर थर्टी को निकालकर तब आने पाया हूँ। इससे तो कुली था, तभी अच्छा था कि जब जी चाहता था, जाता था; जब चाहता था, आता था; कोई रोकनेवाला न था। अब तो नहाने-खाने की फुरसत नहीं मिलती, बाबू लोग इधर-उधर दौड़ाते रहते हैं। किसी को नौकर रखने की समाई तो है नहीं, सेंत-मेंत में काम निकालते हैं।
सूरदास-मैं न बुलाता, तो तुम अब भी न आते। इतना भी नहीं सोचते कि अंधा आदमी है, न जाने कैसे होगा, चलकर जरा हाल-चाल पूछता आऊँ। तुमको इसलिए बुलाया है कि मर जाऊँ तो मेरा किरिया-करम करना, अपने हाथों से पिंडदान देना, बिरादरी को भोज देना और हो सके, तो गया कर आना। बोलो, इतना करोगे?
भैरों-भैया, तुम इसकी चिंता मत करो, तुम्हारा किरिया-करम इतनी धूमधाम से होगा कि बिरादरी में कभी किसी का न हुआ होगा।
सूरदास-धूमधाम से नाम तो होगा, मगर मुझे पहुँचेगा तो वही, जो मिठुआ देगा।
मिठुआ-दादा, मेरी नंगाझोली ले लो, जो मेरे पास धोला भी हो। खाने-भर को तो होता ही नहीं, बचेगा क्या?
सूरदास-अरे, तो क्या तुम मेरा किरिया-करम भी न करोगे?
मिठुआ-कैसे करूँगा दादा, कुछ पल्ले-पास हो, तब न?
सूरदास-तो तुमने यह आसरा भी तोड़ दिया। मेरे भाग में तुम्हारी कमाई न जीते-जी बदी थी, न मरने के पीछे।

मिठुआ-दादा, अब मुँह न खुलवाओ, परदा ढँका रहने दो। मुझे चौपट करके मरे जाते हो; उस पर कहते हो, मेरा किरिया-करम कर देना,गया-पराग कर देना। हमारी दस बीघे मौरूसी जमीन थी कि नहीं, उसका मुआवजा दो पैसा, चार पैसा कुछ तुमको मिला कि नहीं, उसमें से मेरे हाथ क्या लगा? घर में भी मेरा कुछ हिस्सा होता है या नहीं? हाकिमों से बैर न ठानते, तो उस घर के सौ से कम न मिलते। पंडाजी ने कैसे पाँच हजार मार लिए? है उनका घर पाँच हजार का? दरवाजे पर मेरे हाथों के लगाए दो नीम के पेड़ थे। क्या वे पाँच-पाँच रुपये में भी महँगे थे? मुझे तो तुमने मटियामेट कर दिया, कहीं का न रखा। दुनिया-भर के लिए अच्छे होगे, मेरी गरदन पर तो तुमने छुरी फेर दी, हलाल कर डाला। मुझे भी तो अभी ब्याह-सगाई करनी है, घर-द्वार बनवाना है। किरिया-करम करने बैठूँ, तो इसके लिए कहाँ से रुपये लाऊँगा? कमाई में तुम्हारे सक नहीं, मगर कुछ उड़ाया, कुछ जलाया, और अब मुझे बिना छाँह के छोड़े चले जाते हो, बैठने का ठिकाना भी नहीं। अब तक मैं चुप था, नाबालिग था। अब तो मेरे भी हाथ-पाँव हुए। देखता हूँ, मेरी जमीन का मुआवजा कैसे नहीं मिलता! साहब लखपती होंगे, अपने घर के होंगे, मेरा हिस्सा कैसे दबा लेंगे? घर में भी मेरा हिस्सा होता है। (झाँककर) मिस साहब फाटक पर खड़ी हैं, घर क्यों नहीं जातीं? और सुन ही लेंगी, तो मुझे क्या डर? साहब ने सीधो से दिया, तो दिया; नहीं तो फिर मेरे मन में भी जो आएगा, करूँगा। एक से दो जानें तो होंगी नहीं;मगर हाँ, उन्हें भी मालूम हो जाएगा कि किसी का हक छीन लेना दिल्लगी नहीं है!

   1
0 Comments